वह बँधा रहा है जन्म से ही...
बल्कि जन्म के पहले से ही...
अस्तित्व-निर्माण की प्रक्रिया के समय से ही....
दृश्य- अदृश्य,
सुखद- कष्टकारी,
चमकीले- स्याह,
चाहे-अनचाहे बन्धनों में.
कुछ को वह चुनता है
कुछ को स्वयं बुनता है
कुछ लिपट जाते हैं उससे अनायास
अस्तित्ववश, प्रकृतिवश, जिजीविषावश .
कुछ चुभते हैं कँटीले तारों से
जिनसे छूटने को वह छटपटाता है
कुछ सहलाते हैं मृदुल फुहारों से
जिन्हें (स्वयं को) समर्पित कर वह तृप्ति पाता है.
किन्तु,
बँधा रहता है सतत...उम्र भर.
और जब तक बँधा रहता है
तभी तक "वह" रहता है
जब मुक्त होता है
पञ्च तत्वों में विलीन हो जाता है,
एक आह
एक नाम
एक याद बन जाता है.
बुधवार, 18 जनवरी 2012
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bahut sundar,vastvikta sanjoye hue.
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