हे तुलसी !
तुमने राम को शबरी के जूठे बेर तो खिला दिए
किन्तु उसकी मिठास
तुम्हारे "मानस" तक ही रह गई.
तुम्हारे राम ने तो
रीछ, वानर और पक्षियों को भी भाई बनाया था
यहाँ, मानव की
मानव के प्रति संवेदनाएँ ही
वर्ण-व्यवस्था की राक्षसी निगल गई.
बुधवार, 11 जनवरी 2012
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
सटीक ..बहुत अच्छी रचना
जवाब देंहटाएं