सोमवार, 21 नवंबर 2011

स्मृति

तुम प्रतिष्ठित हो
उस हर क्षण में
जिनसे होकर मैं गुजरता हूँ
अदृश्य, अगोचर…
विलीन हो हर मूर्त और अमूर्त में,
जो भी मेरे चक्षुओं
और मन की दृष्टि की परिधि में आता है.

जब भी तुम्हारा स्मरण मानस में उभरता है,
हर वस्तु आलोड़ित हो उठती है
किसी तरल की तरह
और उस पर डोलती हुई चंचल तरंगें
तुम्हारी आकृति उकेर देती हैं,
तुम्हारी मुस्कान बिखेर देती हैं

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें