मंगलवार, 6 अक्तूबर 2009

मेरे जज़्बात तुम बिन कम न होते

मेरे जज़्बात तुम बिन कम न होते।
ख़ुशी से रूबरू पर हम न होते।

रुतें आतीं तेरे बिन भी जहां में,
बहारों के मगर मौसम न होते।

कभी ना रंगे-उल्फ़त देख पाता,
अगर इस दिल के तुम हमदम न होते।

ख़लाओं में भटकती ज़ीस्त तुम बिन,
किसी मंज़िल के राही हम न होते।

शुआ-ए-रुख़ से अब दिन रात रोशन,
तेरे बिन ये हसीं आलम न होते।

मेरी ही रूह का हो एक हिस्सा,
न मिलते जो; मुक़म्मल हम न होते।

1 टिप्पणी:

  1. मेरी ही रूह का हो एक हिस्सा,
    न मिलते जो मुक़म्मल हम न होते।
    मुकम्मल हो गए सपने और कविता भी ...बहुत शुभकामनायें ..!!

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