सोमवार, 14 सितंबर 2009

जुगनुओं के ताप से कोई फसल पकती नहीं


आह हाथों की लकीरों को बदल सकती नहीं
जुगनुओं के ताप से कोई फसल पकती नहीं

यूँ कभी कुछ देर मन बहला भले देती है यह
नाव कागज़ की नदी तो पार कर सकती नहीं

कालिखें कितनी पुतेंगी और अब इतिहास पर
बह रही खूँ की नदी जो, क्यों कभी रुकती नहीं

ज़ब्त करना सीख लो ग़म, क्योंकि चीखों से कभी
आसमाँ झुकता नहीं है, ये जमीं रुकती नहीं

1 टिप्पणी:

  1. ज़ब्त करना सीख लो ग़म, क्योंकि चीखों से कभी
    आसमाँ झुकता नहीं है, ये जमीं थमती नहीं

    ....बहुत सुन्दर !!

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