मंगलवार, 30 जून 2009

ईर्ष्या ! तू न गयी मेरे मन से !

(डा.राम कुमार वर्मा के एक निबंध से प्रेरित; स्थायी पंक्ति उसी निबंध का शीर्षक है )

ईर्ष्या ! तू न गयी मेरे मन से !

भाँति भाँति के दरवाजों से, मन में तू पग धरती है
तरह तरह के रूप बदलकर, अंतह में तू जलती है
बढ़ जाती जब तेरी ज्वाला, दग्ध हृदय का आँगन होता
ज्येष्ठ सुता तेरी -निंदा, तब झरती जिह्वा के बादल से !

ईर्ष्या ! तू न गयी मेरे मन से !

देखूँ जब उन्मत्त नाचते कभी किसी मतवाले को
सात सुरों में गाता देखूँ, हर्ष भरे जब मस्ताने को
कुंठा मेरी, पथ प्रशस्त आने का तेरे कर देती
फुँफकारें तब तेरी उठती हैं मेरे मन कानन से !

ईर्ष्या ! तू न गयी मेरे मन से !

जब जब देखूँ शान्ति, सुयस, उत्थान किसी के जीवन में
जम जाती तू अडिग शैल सी आकर मन के आँगन में
अहम् हमारा चढ़ जाता है, जाकर तुंग श्रृंग पर तेरे
व्यंग,कटाक्ष, निंदा- अस्त्रों को बरसाता पूरे मन से !

ईर्ष्या ! तू न गयी मेरे मन से !

मनुज हर्ष ही तो केवल है, स्रोत नहीं तेरे अंकुर का
खग कलरव, नद का कलकल, अनुपम गान भ्रमर का
कभी कभी आधार बने हैं ये भी तेरे आने के
पर-"सुख औ सुन्दरता" देखूँ; अँगडाई लेती तू मन में !

ईर्ष्या ! तू न गयी मेरे मन से !

7 टिप्‍पणियां:

  1. प्रताप जी,बहुत सुन्दर लिखा है।बधाई स्वीकारें।

    जब जब देखूँ शान्ति, सुयस, उत्थान किसी के जीवन में
    जम जाती तू अडिग शैल सी आकर मन के आँगन में
    अहम् हमारा चढ़ जाता है, जाकर तुंग श्रृंग पर तेरे
    व्यंग,कटाक्ष, निंदा- अस्त्रों को बरसाता पूरे मन से !

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  2. इधर कई दिनों से कुछ भी लिखने पढ़ने से मन बुरी तरह हटा हुआ है !
    यह कविता पढ़ी -----जबरदस्ती !
    लग रहा है की कविताए लिखने पढ़ने से कुछ नही बदलता | न हम बदलते है न दुनिया |
    यह सब बंद करना चाहिए !

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  3. भाँति भाँति के दरवाजों से, मन में तू पग धरती है
    तरह तरह के रूप बदलकर, अंतह में तू जलती है
    बढ़ जाती जब तेरी ज्वाला, दग्ध हृदय का आँगन होता
    ज्येष्ठ सुता तेरी -निंदा, तब झरती जिह्वा के बादल से !

    बस एक ही शब्द कहूँगी .....लाजवाब......!!

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  4. बहुत ही सुन्दर. जितनी प्रशंसा करूँ कम है.

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